पतझड़ में जब मैंने अपने ,
पच्चीस साल पुरे किये ,
तब टहनियों से टूट के ज़मी पर आया ,
आते ही सामना हवाओं से हुआ
खूब थपेड़े खाए , जिधर उसने चाह बस चल दिए
फ़िर धीरे से बारिश की बुँदे पड़ी
उसने थोड़ा सा सुकून पहुँचाया ,
भिगो करके उसने दी मुझको रहत
सोंधी सोंधी मिट्टी से मुझको मिलाया ,
मैं महकता रहा नई ताज़गी से
सभी को मैं बड़ा रास आया ,
फ़िर सूरज की किरणे जब मुझपर पड़ी
ख़ुद को नहीं मैं उस से बचा पाया ,
उम्र जो मेरी कम को रही थी
सूरज की जलन मैं नहीं सह पाया , जाने का वक्त अब आ ही रहा था
मैं धीरे से खामोशी के साथ हो गया ,
मिल गया मैं जाके फ़िर उसी कुदरत में
जिसने कभी मुझे पैदा किया था ,
मैं ज़मी के अन्दर से दुआ करता रहा
सारा जहाँ फ़िर से रौशन हो गया ,
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2 टिप्पणियाँ:
सूखे पत्ते से जिन्दगी को बखूबी पेश किया है।बढिया लिखा है।
मैं धीरे से खामोशी के साथ हो गया ,
मिल गया मैं जाके फ़िर उसी कुदरत में
जिसने कभी मुझे पैदा किया था ,
मैं ज़मी के अन्दर से दुआ करता रहा
सारा जहाँ फ़िर से रौशन हो गया ,
बहुत प्यार से पढी आप की कविता,कई बार पढी धन्यवाद
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