तू मुझे कहीं दूर लेके चल !
जहाँ सिर्फ़ मैं हूँ , और मेरी तन्हाई हो !
न कोई रौशनी , न कोई परछाई हो !
ऐं ज़िन्दगी तू मुझे कहीं दूर लेके चल !!
मुझे दुनिया का नहीं , अपनों से डर है ,
हज़ार चहरे है लेकिन , हमदर्द कोई नहीं है !
कुछ है अगर तो सिर्फ़ मेरी तन्हाई है ...,
ऐं ज़िन्दगी , तू मुझे कहीं दूर लेके चल !!
अब तो ये आरज़ू है के मैं गुमनाम हो जाऊँ ,
न किसी के ज़िक्र में आऊं न ज़हन में आऊं !
न किसी को खोने का ग़म हो , न पाने की हसरत ,
बस लगता है , खामोशी से ज़मी ओढ़ के सो जाऊं !!
ऐं ज़िन्दगी , तू मुझे कहीं दूर ...लेके चल ......
7 टिप्पणियाँ:
अनवर भाई कविता तो बहुत सुन्दर हे, सुन्दर भाव हे,लेकिन बहुत उदासी भरी हे,अरे भाई खुश रहो,
धन्यवाद
अनवर भाई! कविता उदासी भरी है,लेकिन अच्छी कविता है.....
शुभकामनाओं के साथ!
इस उम्र में नैराश्यवाद छोड़ना ही ठीक रहता है बाकी आपकी मर्जी.....
कविता के अंतिम भाग में अंतिम सत्य छुपा हुआ है. मगर ज़िन्दगी उदासी से ज़्यादा खुशहाली का नाम है, भले ही वह खुशफ़हमी से प्रेरित हो.निसर्ग या कायनात में धनात्मकता का बाहुल्य है, तो हमा्रे नज़रिये में भी क्यों नही? Just one thought.
कविता के अंतिम भाग में अंतिम सत्य छुपा हुआ है. मगर ज़िन्दगी उदासी से ज़्यादा खुशहाली का नाम है, भले ही वह खुशफ़हमी से प्रेरित हो.निसर्ग या कायनात में धनात्मकता का बाहुल्य है, तो हमा्रे नज़रिये में भी क्यों नही? Just one thought.
बहुत सुन्दर!
मस्त रहो, लिखते रहो!
Keep it up!
ज़िन्दगी जब उदास करती है , अपने चहरे भी बेगाने लगते है , तो इस तरह के ख्याल आते है , लेकिन अभी और टूटना बाकी है ज़िन्दगी में ....
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