Friday, August 15, 2008

ऐं ज़िन्दगी ...



ऐं ज़िन्दगी ,

तू मुझे कहीं दूर लेके चल !

जहाँ सिर्फ़ मैं हूँ , और मेरी तन्हाई हो !

न कोई रौशनी , न कोई परछाई हो !

ऐं ज़िन्दगी तू मुझे कहीं दूर लेके चल !!

मुझे दुनिया का नहीं , अपनों से डर है ,

हज़ार चहरे है लेकिन , हमदर्द कोई नहीं है !

कुछ है अगर तो सिर्फ़ मेरी तन्हाई है ...,

ऐं ज़िन्दगी , तू मुझे कहीं दूर लेके चल !!

अब तो ये आरज़ू है के मैं गुमनाम हो जाऊँ ,

न किसी के ज़िक्र में आऊं न ज़हन में आऊं !

न किसी को खोने का ग़म हो , न पाने की हसरत ,

बस लगता है , खामोशी से ज़मी ओढ़ के सो जाऊं !!

ऐं ज़िन्दगी , तू मुझे कहीं दूर ...लेके चल ......

7 टिप्पणियाँ:

राज भाटिय़ा on August 16, 2008 at 1:15 AM said...

अनवर भाई कविता तो बहुत सुन्दर हे, सुन्दर भाव हे,लेकिन बहुत उदासी भरी हे,अरे भाई खुश रहो,
धन्यवाद

सोनाली सिंह on August 16, 2008 at 6:14 AM said...

अनवर भाई! कविता उदासी भरी है,लेकिन अच्छी कविता है.....
शुभकामनाओं के साथ!

योगेन्द्र मौदगिल on August 16, 2008 at 7:56 AM said...

इस उम्र में नैराश्यवाद छोड़ना ही ठीक रहता है बाकी आपकी मर्जी.....

दिलीप कवठेकर on August 16, 2008 at 10:47 AM said...

कविता के अंतिम भाग में अंतिम सत्य छुपा हुआ है. मगर ज़िन्दगी उदासी से ज़्यादा खुशहाली का नाम है, भले ही वह खुशफ़हमी से प्रेरित हो.निसर्ग या कायनात में धनात्मकता का बाहुल्य है, तो हमा्रे नज़रिये में भी क्यों नही? Just one thought.

दिलीप कवठेकर on August 16, 2008 at 10:48 AM said...

कविता के अंतिम भाग में अंतिम सत्य छुपा हुआ है. मगर ज़िन्दगी उदासी से ज़्यादा खुशहाली का नाम है, भले ही वह खुशफ़हमी से प्रेरित हो.निसर्ग या कायनात में धनात्मकता का बाहुल्य है, तो हमा्रे नज़रिये में भी क्यों नही? Just one thought.

Smart Indian on August 16, 2008 at 1:49 PM said...

बहुत सुन्दर!
मस्त रहो, लिखते रहो!
Keep it up!

Anwar Qureshi on August 17, 2008 at 12:13 AM said...

ज़िन्दगी जब उदास करती है , अपने चहरे भी बेगाने लगते है , तो इस तरह के ख्याल आते है , लेकिन अभी और टूटना बाकी है ज़िन्दगी में ....

 

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