Saturday, August 9, 2008

चिकनी चिकनी प्यारी प्यारी ...


दुबली पतली नाज़ुक नाज़ुक
चिकनी चकनी प्यारी है ,
गोल गोल सी बड़े बड़े से
हाथों में नहीं आती है ,
छोटा सा एक छेद है बीच में
उसमे ऊँगली भी नहीं जाती है ,
लेकिन प्यारी सच कहता हूँ
कितने रंग दिखाती है ,
जैसे ही आता है चुनाव
तेरी मांग बढ़ जाती है ,
अपने इस छोटे से बदन में
बडों बडों को समाती है ,
करती है जब तू अंग प्रदर्शन
सब के होश उड़ाती है ,
बड़े बड़े नेताओं को तू
नंगा करते जाती है ,
तेरी सात रुपयों की कीमत
सात लाख हो जाती है ,
टीवी चैनल में तू दिख के
उसकी शोभा बढाती है ,
सारे नेताओं की किस्मत
तेरे अन्दर ही समाती है ,
अगर कभी तू दिख जाती है तो
सब का बैंड बजाती है ,
सच कहता हूँ प्यारी सी.डी. तू
कितने रंग दिखाती है ...

7 टिप्पणियाँ:

राज भाटिय़ा on August 9, 2008 at 7:09 AM said...

अनवर मियां बहुत ही सुन्दर कविता पेश की हे, धन्यवाद

Anil Pusadkar on August 9, 2008 at 7:59 AM said...

gazab anwar miya

जितेन्द़ भगत on August 9, 2008 at 12:01 PM said...

माफ करना भाई, मैं तो इसका दूसरा अर्थ लगा बैठा था। अंत में जाकर मन का मैल साफ हुआ!

Udan Tashtari on August 9, 2008 at 1:47 PM said...

सटीक!!!! बेहतरीन!

योगेन्द्र मौदगिल on August 9, 2008 at 8:14 PM said...

अनवर भाई,
कसम से मैं भी भगत जी तरह
बहकने को तैयार था...
पर मन ही नहीं माना,
मन ने यही सलाह दी,
कि जब चीज़ सामने हैं..
तो नीचे तक देखने में हर्ज़ क्या ?
khair..
अच्छा थाट..
गजब का शाट..
बल्ले-बल्ले.....

Anwar Qureshi on August 10, 2008 at 12:39 AM said...

आप सभी का धन्यवाद ....आप की टिप्पणियाँ जो मुझे आशीर्वाद के सामान मिल रही है उसके लिए मैं सदेव आप का आभारी रहूँगा ...

बालकिशन on August 10, 2008 at 4:05 AM said...

बहुत खूब साब.
क्या सफाई से लिखा है आपने.
मज़ा आ गया.

 

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