स्त्री के अनेक रूप हम सभी ने अपने जीवन में देखे है , माँ , बहन , पत्नी , बेटी , ये सभी पात्र पुरूष के जिवन से होकर कभी ना कभी ज़रूर गुज़रते है , और ये सभी जीवन में एक विशेष महत्व रखते हैं , स्त्री हमेशा से ही बलिदान का वो चहरा रही है जिसने हालात के साथ ना जाने कितने समझौते किए है , बेटी रही तो पराई रही , पत्नी हुई तो बहु बन गई , और माँ बन कर बच्चों के भविष्य के लिए समझौते !
पुरूष प्रधान समाज में आज भी स्त्री की जगह उस कोने में है जहाँ से सिर्फ़ झाँका जा सकता है या किन्ही फैसलों को सुना जा सकता है चुप्पी साधे हुए , जहाँ उन्हें फैसलों को मानने की बाध्यता होती है , बिना उनकी बात सुने बगेर , ये हालत भारत के उस सत्तर प्रतिशत छेत्र में है जहाँ ग्रामीण आबादी बस्ती है ,
पुरूष के जिवन का एक पात्र { पत्नी, वैसे सभी पात्र प्रभावित करते है } वास्तव में प्रभावित करने वाला है , पराई बेटी से जब पत्नी बनके किसी पुरूष के जिवन में प्रवेश करती है साथ ही वह बहु कहलाने लगती है तब परिवार की सारी जिम्मेदारियों का भोझ भी उस अबला नारी पर ही होता है , कुल मिलकर परिवार से लेकर पति तक केयर टेकर की भूमिका में पत्नी होती है जिसका मालिक उसका पति होता है ?
वैवाहिक जिवन में पुरूष को वो सारे संवैधानिक अधिकार प्राप्त होते है जिसमे पत्न्नी द्वारा पति को वो सारे सुख जिसकी वो अपेक्षा रखता है नहीं मिलने पर पत्नी को प्रताड़ित किया जा सकता है या यूं कहिये मानसिक रूप से विकलांग पुरूष अपनी नंपुसकता का परिचय देते हुए पत्नी को प्रताड़ित करता है , जिसमे पत्नी की भूमिका सहने मात्र की होती है , अपने मूल अधिकारों से अज्ञान स्त्री !
दूसरी तरफ़ हालत कुछ बदले बदले से है भारत चाहे वो तीस प्रतिशत आबादी जो शहरों में बस्ती है अपने अधिकारों से पुरी पुरी तरह वाकिफ है , वो पीछे नहीं साथ मिलकर चलना चाहती है ...कुछ तो मर्दों से आगे भी निकल गई है , कभी मर्दों के नीचे दबी कुचली औरत अब मर्दों के ऊपर आने लगी है , ये विश्वास उन महिलाओं में है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है , जो किसी भी रूप में मर्दों से पीछे नहीं है , वो कंधे से कन्धा मिलकर चलना चाहती है ,
बड़ी ही अजीब विडंबना है , जिस देश में स्त्री को देवी की तरह समझा जाता है और उसकी पूजा की जाती है उसी देश में स्त्री घरेलू हिंसा का शिकार हो रही है , या फिर के टोनही होने के शक में उसे पुरे गावं में नंगा करके घुमाया जाता है , किसी ना किसी बहाने से स्त्री पर अत्याचार होता रहता है ॥लेकिन स्त्री अपने होटों को सिले सारे अत्याचारों को सहती रहती है
इक्कीसवीं सदी में भी समाज या के पुरुष की सोच में स्त्री के प्रति कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है शहरी छेत्रों को छोड़ दिया जाये तो ग्रामीण इलाकों में आज भी स्त्री को पुरुष अपनी खरीदी हुई जागीर समझता है , अपने अधिकारों से अनजान स्त्री प्रताड़ना का शिकार होते रहती है लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता है ,
समाज की नज़र से देखा जाये तो स्त्री "पत्नी " की भूमिका पुरुष "पति " के लिए एक केयर टेकर की होती है जिसका मालिक उसका पति होता है !!!
9 टिप्पणियाँ:
ek sadhii hui post kae liyae abhivaadan swikarey
स्त्री के सारे संकट वहीं से खड़े होते हैं जहाँ वह इस मालिकाना हक में बराबरी चाहती है। यह प्रकृति का नियम है कि कोई भी किसी को भी अपना मालिकाना हक बांटना पड़ जाए या छोड़ना पड़ जाए तो प्रतिरोध करता है। इस प्रतिरोध की कोई सीमा नहीं। अब हक पाने की इच्छा रखने वाले को संघर्ष तो करना पड़ेगा।
बहुत बढ़िया!
इक्कीसवीं सदी में भी समाज या के पुरुष की सोच में स्त्री के प्रति कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है शहरी छेत्रों को छोड़ दिया जाये तो ग्रामीण इलाकों में आज भी स्त्री को पुरुष अपनी खरीदी हुई जागीर समझता है , अपने अधिकारों से अनजान स्त्री प्रताड़ना का शिकार होते रहती है लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता है ,
sahi kaha aapne.....
sahi hai anwar miya
अनवर मियां बहुत ही सुन्दर सोच लिये हे आप का यह लेख , बहुत अच्छा लगा ,
धन्यवाद
bahut acha sandesh diya hai aapne...
shayad is tarah ke lekho ko padh kar kuch to asar padhega logo par...
बिल्कुल सही कहा अनवर मियां। बदलाव धीरे धीरे हो रहे हैं लेकिन वो ही काफी नहीं है। कुछ ऐसे लोग शहर में भी हैं।
बहुत खूब चलती है आपकी कलम. पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ.. पिछली पोस्ट बहुत बढ़िया व्यंग कसा है. और इस पोस्ट में पुरूष होने के बावजूद नारी के दर्द को समझा, वाकई काबिल-ऐ-तारीफ़ है.
Post a Comment